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चित्त वृत्ति निरोध: महर्षि पतंजलि

May 042017

 

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योग का अर्थ है ‘मिलना’, ‘जुड़ना’, ‘संयुक्तहोना’ आदि।
जिस विधि से साधक अपने प्रकृति जन्य विकारोंको त्याग कर अपनी आत्माके साथ संयुक्त होता है वही ‘योग’है। यह आत्मा ही उसका निज स्वरूप है तथा यही उसका स्वभाव है।अन्य सभी स्वरूप प्रकृति जन्य हैं जो अज्ञानवश अपने ज्ञात होते हैं। इन मुखौटोंको उतारकर अपने वास्तविक स्वरूपको उपलब्ध होजानाही योग है।यही उसकी ‘कैवल्यावस्था’ तथा ‘मोक्ष’ है।
योग की अनेक विधियाँ हैं। कोई किसीका भी अवलम्बन करे अन्तिम परिणाम वही होगा। विधियोंकी भिन्नताके आधारपर योग के भी अनेक नाम होगये हैं जैसे-राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, संन्यासयोग, बुद्धियोग, हठयोग, नादयोग, ध्येय है उस पुरुष (आत्मा) के साथ अभेद सम्बन्ध स्थापित करना। महर्षि पतंजलिका यह योगदर्शन इन सबमें श्रेष्ठ एवं ज्ञानोपलब्धि का विधिवत्मार्ग बताता है जो शरीर, इन्द्रियो तथा मनको पूर्ण अनुशासित करके चित्तकी वृत्तियोंका निरोध करता है। पतंजलि चित्तकी वृत्तियोंके निरोध कोही ‘योग’कहते हैं क्योंकि इनके पूर्ण निरोध से आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है। इस निरोध के लिए वे अष्टाँग योग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योग के आठ अंग का मार्ग वताते हैं जो निरापद है। इसलिए इसे अनुशासन कहाजाता है जो परम्परागत तथा अनादि है। इसके मार्ग पर चलने से किसी प्रकारका भय नहीं है तथा कोई अनिष्टभी नहींहोता, न मार्ग में कहीं अवरोधही आताहै।जहाँ-जहाँ अवरोध आते हैं उनका इस ग्रंथ में स्थान स्थान पर वर्णन कर दिया है जिससे साधक इनसे बचता हुआ अपने गन्तव्य तक पहुँच सकताहै।योग की मान्यता नुसार ‘प्रकृति” तथा ‘पुरुष’ (चेतनआत्मा) दो भिन्न तत्व हैं जो अनादिहैं। इन दोनोंके संयोग से ही इस समस्त जड़ चेतन मय सृष्टिका निर्माण हुआ है।प्रकृति जड़ है जो सत्व, रज तथा तम तीन गुणों से युक्त है।इसके साथ जब चेतना (पुरुष) का संयोग होता है तब उसमें हलचल होती है तथा सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होती है। यह ‘प्रकृतिदृश्य’ हैतथा ‘पुरुषदृष्टा’ है।इस सृष्टि में सर्वत्र प्रकृतिही दिखाई देती है, पुरुष कहीं दिखाई नहीं देता किन्तु प्रकृतिका यह सम्पूर्ण कार्य उस पुरुषतत्वकी प्रधानतासे ही हो रहा है।ये दोनों इस प्रकार संयुक्त होगये हैं कि इन्हें अलग-अलग पहचानना कठिन है। इसका कारण अविद्याहै। ‘पुरुष’ सर्वज्ञ है तथा प्रकृतिके हर कण में व्याप्त होने से वह सर्व-व्यापी भी है। जीव भी इन दोनोंके ही संयोग का परिणाम है। उस ‘पुरुष’ को शरीरमें ‘आत्मा’ तथा सृष्टिमें ‘विश्वात्मा’ कहा जाता है जिसे योग दर्शनमें ‘पुरुषविशेष’ कहा है।

डां.सुनंदाराठी,वरिष्ठ योग संशोधक
योग इनिशिएटीव सेंटर,पुणे.

 

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